फ़र्रूख़ाबाद

फ़र्रूख़ाबाद भारत के उत्तर प्रदेश का एक प्रमुख शहर एवं लोकसभा क्षेत्र है। फ़र्रूख़ाबाद जिला, उत्तर प्रदेश की उत्तर-पश्चिमी दिशा में स्थित है। इसका परिमाप १०५ किलो मीटर लम्बा तथा ६० किलो मीटर चौड़ा है। इसका क्षेत्रफल ४३४९ वर्ग किलो मीटर है, गंगा, रामगंगा, कालिन्दीईसन नदी इस क्षेत्र की प्रमुख नदियां हैं। यहाँ गंगा के पश्चिमी तट पर आबादी बहुत समय पहले से पायी जाती है।

फ़र्रूख़ाबाद
समय मंडल: आईएसटी (यूटीसी+५:३०)
देश  भारत
राज्य उत्तर प्रदेश
ज़िला फ़र्रूख़ाबाद
महापौर
आधिकारिक जालस्थल: farrukhabad.nic.in

पौराणिक सन्दर्भ

पांचाल देश जो कि पौराणिक-काल से जाना जाता है। इसका उल्लेख, पांचाली व पांचाल-नरेश अनेकानेक रुपों में महाभारत में उद्धृत है।

शहर

व्यापार तथा व्यवसाय की दृष्टि से फ़र्रूख़ाबाद एक महत्त्वपूर्ण शहर है। यह १०० किलो मीटर के अर्द्धव्यास का शहर आज भी अपना एक महत्व रखता है। शहर में ३००-४०० वर्ष पुराने अनेक खण्डहर अभी बचे हैं। परवर्ती शासकों और अन्य शासकवंशों के समर्थकों ने ही संभवत: इन भवनों को नष्ट किया है। फ़र्रूख़ाबाद में लगभग २० मकबरे हैं। इनका सूक्ष्म विश्लेषण एक पृथक तथ्य का उद्घाटन करता है। प्लास्टर की परत के नीचे छिपे स्थापत्य-कला के वे मौलिक तत्व प्राचीन स्थापत्य-कौशल तथा हिन्दू कलाकारी के प्रतीक चिह्न हैं।

गंगा तट पर पांचाल घाट, टोंक-घाट और रानी घाट,भैरों घाट पर ईंटों के प्राचीन निर्माण देखा जा सकता है। पंचाल घाट पुराना नाम घटिया घाट अन्त्येष्टि के लिए प्रयोग किया जाता है। घटिया का अर्थ यहाँ आवागमन स्थल है। कुछ जीर्ण-शीर्ण खण्डहर इधर-उधर हैं। फ़र्रूख़ाबाद के इतिहास को परिलक्षित करने के लिए अधिक कुछ शेष नहीं है। दस वर्ष पूर्व डी. एन. कालेज में खुदाई कार्य से प्राप्त कुछ मूर्तियां, जो पूर्व और उत्तरी (पश्चात) गुप्त कालीन है। ये मूर्तियाँ हिन्दू मंदिर स्थापत्य कला के अभिन्न अंग हैं और अब वे डी. एन. कालेज के प्रांगण में स्थित हैं। ये सभी मूर्तियां मूर्तिकारों की उत्तम कोटि की कला की श्रेष्ठता के जीवन्त प्रतीक हैं जो गुप्त काल में अधोगति को प्राप्त हुई।

मंदिर

(फर्रुखाबाद ) में सबसे प्राचीन मंदिर पंडाबाग मंदिर यहाँ के लोगो का मानना है की इस मंदिर की स्थापना स्वम् पांड्वो ने की थी . व इस मंदिर भगवन शिव की प्राचीन मूर्ति व शिवलिंग स्थापित है व इस मंदिर में भगवन शिव के साथ कई और भगवानो की भी मुर्तिया स्थापित की गई है, फतेहगढ़ के मंदिरों में से एक मंदिर में उमा-महेश्वर और गणेश की प्रतिमाएं हैं। शैली और प्रतीकात्मक आधार पर ये ११-१२ सदी की हैं। जो कि कला पारखियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। उत्तर-मुगलकालीन समय के अनेक मंदिर यहां हैं। ये मंदिर दार्व्हिष्टक सौंदर्य और स्थापत्य कला के श्रेष्ठता के उदाहरण हैं। सौंदर्य और काव्य-शास्त्र जनसाधारण की कलात्मक अभिरुचियों के विषय में कहता नहीं अघाता।

फ़र्रूख़ाबाद में बढ़पुर में ईंटों से निर्मित एक मंदिर है, जिसमें हिंदू देवी-देवताओं की पाषाण-मूर्तियां हैं। उलवेरुनी ने अपनी पुस्तक किताब उल-हिन्द में भी फ़र्रूख़ाबाद का उल्लेख किया है।

दुर्ग

एक दुर्ग जो कि अभी भी अक्षय है, राजपूत रेजीमेंटल सेंटर के अधिपत्य में है। यह गंगा के पश्चिमी तट पर स्थित है।

इन किलों के विषय में फ़र्रूख़ाबाद में बहुत अधिक शेष नहीं है। एक किला जो कि अभी तक सही-सलामत है वह राजपूत रेजीमेंटल सेंटर के अधीन है। यह गंगा के पश्चिमी तट पर अवस्थित है। किले के प्रमुखद्वार का जीर्णोद्धार कर उसे नया बनाया गया है। फर्रूखाबाद शहर के चारों तरफ की प्राचीर में दस दरवाजे हैं दरवाजों के नामों में लाल दरवाजा, रानी दरवाजा, हुसैनिया दरवाजा, कादरी दरवाजा, जसमाई दरवाजा, मऊ दरवाजा शामिल है। फ़र्रूख़ाबाद में रानी मस्जिद है, रानी शब्द अनेक रुपों और स्थानों से जुड़ा है। यहां जैसे रानी बाग, रानी घाट, रानी दरवाजा और रानी मस्जिद। शहर में एक दुर्ग था, जो कि ध्वस्त कर दिया गया और उसके मलवे से एक नये टाऊनहॉल का निर्माण किया गया।

फ़र्रूख़ाबाद से १२ किलो मीटर कानपुर मार्ग पर एक किला है जो कि अब भग्नावशेष मात्र है। मोहम्दाबाद, फ़र्रूख़ाबाद से २० किलो मीटर दूर में से किले की दीवारें अभी भी देखी जा सकती हैं। जो कि बहुत ही जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं। मोहम्मदाबाद का किला सैनिक विद्रोह के पश्चात ध्वस्त हुआ।

जयचन्द के समय में फतेहगढ़ छावनी क्षेत्र था। मोहम्मद तुगलक १३४३ में फतेहगढ़ आया। वह स्वयं फ़र्रूख़ाबाद में ठहरा और उसके सैनिक फतेहगढ़ में।

दिलीप सिंह, पंजाब के अंतिम सिख शासक लाहौर में राज्यच्युत हुए और फ़र्रूख़ाबाद में उन्हें बंदी बनाकर रखा गया। वे यहां ३ वर्ष ८ माह तक बंदी रहे।

संकिशा

फतेहगढ़ से ३५ किलो मीटर दूर स्थित संकिशा है। इसका प्रथमोल्लेख वाल्मीकि रामायण में पाया जाता है। संकिशा नरेश सीता स्वयंवर में आमन्त्रित थे। जनसमूह में उन्होंने अपने मि गर्व का प्रदर्शन किया। वे सीता को बिना शर्त ले जाना चाहते थे। वे राजा जनक द्वारा परास्त और वीरगति को प्राप्त हुए तत्पश्चात् जनक ने अपने अनुज कुंशध्वज को संकिशा पर अधिकार करने के लिए कहा परन्तु महाभारत में इस स्थल का कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। बुद्ध धर्म के इतिहास में इसका उल्लेख बहुधा पाया जाता है। कहा जाता है कि भगवान बुद्ध यहां ८-१० दिन ठहरे थे। यहां से वो फ़र्रूख़ाबाद शहर गए, जबकि वे संकिशा से कन्नौज की यात्रा पर थे। यदि बुद्ध काल में ही नहीं, तो बाद में यहां बौद्ध विहारों, का आगमन हुआ। संकिशा का उत्खन्न कार्य यह सिद्ध करता है कि अनेक उच्चकोटि के भवन व धार्मिक स्थल तदन्तर यहां आए, बौद्ध धर्मावलम्बियों के आश्रयदाताओं द्वारा बनावाए गये। संकिशा भी बौद्धों के लिए एक पवित्र तीर्थ स्थली है। संकिशा का उल्लेख पाणिनी की अष्टाध्यायी में भी पाया जाता है। चीनी यात्री फाह्मवान ने भी इस स्थान का उल्लेख किया है। इस स्थान से अनेक बुद्ध मूर्तियां खुदाई में प्राप्त हुई। जो कि अब मथुरा संग्रहालय में रखी हैं। चीनी तीर्थ-यात्री हवेनत्सांग के अनुसार संकिशा उच्च कोटि के भवनों से सुसज्जित नगर है जिसका निर्माण सम्राट अशोक ने तथा उसके उत्तरवर्ती शासकों ने किया। संकिशा ने अब अपना वैभव खो दिया और मात्र ग्राम रूप में शेष है।

कन्नौज

फतेहगढ़ से २५ किलो मीटर दूर प्राचीन भारत का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण केन्द्र कन्नौज स्थित है। रामायण के अनुसार यह नगर कौशाम्ब द्वारा बसाया गया। जो कि कुश का पुत्र था। महाभारत में भी इसके विषय में उल्लेख पाये जाते हैं। ६०६ ई० में हर्षवर्धन जब थानेश्वर (दिल्ली के उत्तर में) का शासक बना, उसने अपनी राजधानी गंगातटीय कन्नौज में स्थानांन्तरित की। कठियाद से बंगाल तक उसके ४१ वर्ष के शासनकाल में भारत का एक महत्वपूर्ण केन्द्र हर्षवर्धन की राजधानी होने के कारण यहां अनेक उत्तम कोटि के भवनों का निर्माण हुआ जो कि अब लुप्त हो गए हैं।

६वीं शदी से इस स्थान का महत्व बढ़ा। कन्नौज अनेक शताब्दियों तक महत्व का केन्द्र रहा। दुर्भाग्यवश यह विदेशी आक्रमणकारियों का कोप भाजन हो गया। जो अपने स्वर्णिम इतिहास के साक्षी हैं। पुरानी पोशाक, पुराने परिधान फूलमती मंदिर में आज भी देखे जा सकते हैं। गौरी शंकर मंदिर और निकटस्थ चौधरीपुर क्षेत्र, देवकाली और सलीमपुर ग्राम सभी प्राचीन विरासत के केन्द्र हैं। इन सभी स्थलों पर स्थापत्य कला और मूर्तिकला का अद्वितीय सौंदर्य देखा जा सकता है।

८३६ ई० में कन्नौज पर प्रतिहारों का अधिपत्य हो गया। प्रतिहार वंश का अंतिम शासक राज्यपाल था, उसकी राजधानी पर मोहम्मद गजनी के १०१८ ई० में आक्रमण किया। बारा-बार हुए आक्रमणों ने नगर को छिन्न-भिन्न कर दिया जिससे वह पुन: न उभर पाया। मोहम्मद गजनी के ऐतिहासिक वृतान्त उत्वी के अनुसार १०,००० हिन्दू मंदिरों को मोहम्मद की तलवार का शिकार होना पड़ा। १०३० में अलवेरुनी कन्नौज आया, उसने वहां मुस्लिम आबादी का उल्लेख किया है। उसके उल्लेख के अनुसार मुस्लिम आबादी वहां पहले से थी जबकि मुगल शासन आरम्भ भी नहीं हुआ था। तब भी हिन्दू-मुस्लिम शान्ति व सहृदयता से वहां रहते थे। कन्नौज के महाराजा जयचन्द गरवार ११९३ में पराजय तथा वीरगति को प्राप्त हुए। उन्होंने मुस्लिम प्रजा पर विशेष कर (तुर्कुश) लगाया जिससे यह स्पष्ट होता है कि मुस्लिम जनसंख्या हिन्दू साम्राज्य में कम थी। लेकिन अब दुबारा से सकिसा बोध धर्म का एक धार्मिक स्थल ब॑न्त जा रहा हे।

कम्पिल

फतेहगढ़ से उत्तर-पश्चिम दिशा में ४५ किलो मीटर की दूरी पर स्थित यह स्थान ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसका उल्लेख रामायण, महाभारत में भी पाया जाता है। महाभारत में इसका उल्लेख द्रौपदी के स्वयंवर के समय किया गया है कि राजा द्रुपद ने द्रौपदी स्वयंवर यहां आयोजित किया था। काम्पिल्य पांचाल देश की राजधानी थी। यहां कपिल मुनि का आश्रम है जिसके अनुरुप यह नामकरण प्रसिद्ध हुआ। यह स्थान हिन्दू व जैन दोनों ही के लिए पवित्र है। जैन धर्मग्रन्थों के अनुसार प्रथम तीर्थकर श्री ॠषभदेव ने नगर को बसाया तथा अपना पहला उपदेश दिया। तेरहवें तीर्थकर बिमलदेव ने अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत किया। कम्पिल में अनेकों वैभवशाली मंदिर हैं।

समग्रतया सुधार संभव है यदि जिला भारतीय पर्यटन मानचित्र पर लाया जाए। इससे उन्नतिशील परियोजनाएं कुछ गति प्राप्त कर सकती हैं। जिससे नि:सन्देह प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति होगी। अविलम्बावश्यकता क्षेत्र में प्रचार और तत्संबंधी सभी परियोजनाओं को सुचारु रूप से आयोजित व क्रियान्वित करने की है जिसमें वहां की स्थानीय प्रजा सहभागी हो तभी सर्वा प्रगति संभव है।

फ़र्रूख़ाबाद में एक पर्यटक के लिए पर्याप्त दर्शनीय स्थल व सामग्री है। काम्पिल में देवी-देवताओं की प्राचीन प्रतिमाएं हैं, जो कि शिलाखण्डों पर उत्कीर्णित हैं। जो कि अनेक शताब्दियों के बाद भी जीवन्त प्रतीत होती हैं।

संकिशा को तो बौद्धों का मक्का संसारभर में कहा जाता है। कन्नौज अपने उत्पादों से दुनियाभर को सुरभित करता है। यह अनेंक शताब्दियों तक भारत की राजधानी रहा। कन्नौज के वैभव-ऐश्वर्य के साक्षी उसके भग्न शेष हैं। वैज्ञानिक सर्वेक्षण तथा अन्वेषण इसके वैभवशाली इतिहास पर प्रकाश डालने में सक्षम हैं।

अतीत में की गई एक खुदाई फ़र्रूख़ाबाद के इतिहास के विषय में बहुत कुछ उद्घाटित करती है। बहुत कुछ समय के द्वारा नष्ट हो गया जो भी बचा है उसे भावी संततियों के लए सुरक्षित व संरक्षित करने की आवश्यकता है। ये भवन मात्र ईंट चूने के ढ़ेर ही नहीं हैं अपितु अतीत के मौन प्रत्यक्षदर्शी हैं। आज कला, संस्कृति व स्थापत्य कला के विविध आयामों के गहन अध्ययन की परमावश्यकता है। आज सुलभ भवनों की उचित जानकारी देना भी भावी इतिहासान्वेषियों के अध्ययनार्थ एक अद्वितीय योगदान है।

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