रामधारी सिंह 'दिनकर'
रामधारी सिंह 'दिनकर' ' (23 सितम्बर 1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे।[1][2] वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं।
रामधारी सिंह 'दिनकर' | |
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जन्म | 23 सितम्बर 1908 सिमरिया घाट बेगूसराय जिला, बिहार, भारत |
मृत्यु | 24 अप्रैल 1974 65) मद्रास, तमिलनाडु, भारत | (उम्र
व्यवसाय | कवि, लेखक |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
अवधि/काल | आधुनिक काल |
विधा | गद्य और पद्य |
विषय | कविता, खंडकाव्य, निबंध, समीक्षा |
साहित्यिक आन्दोलन | राष्ट्रवाद, प्रगतिवाद |
उल्लेखनीय कार्यs | कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, उर्वशी, हुंकार, संस्कृति के चार अध्याय, परशुराम की प्रतीक्षा, हाहाकार |
उल्लेखनीय सम्मान | 1959:साहित्य अकादमी पुरस्कार 1959: पद्म भूषण 1972: ज्ञानपीठ पुरस्कार |
हस्ताक्षर | ![]() |

'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद 'राष्ट्रकवि' के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तिय का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।
जीवनी
'दिनकर' जी का जन्म [[24 सितंबर]] 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव में हुआ था। उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान में बीए किया। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्यालय में अध्यापक हो गये। १९३४ से १९४७ तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक पदों पर कार्य किया। १९५० से १९५२ तक मुजफ्फरपुर कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे, भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर कार्य किया और उसके बाद भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने।
उन्हें पद्म विभूषण की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय [3] के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। अपनी लेखनी के माध्यम से वह सदा अमर रहेंगे।
द्वापर युग की ऐतिहासिक घटना महाभारत पर आधारित उनके प्रबन्ध काव्य कुरुक्षेत्र को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ काव्यों में ७४वाँ स्थान दिया गया।[4]
पद
1947 में देश स्वाधीन हुआ और वह बिहार विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रध्यापक व विभागाध्यक्ष नियुक्त होकर मुज़फ़्फ़रपुर पहुँचे। 1952 में जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ, तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया और वह दिल्ली आ गए। दिनकर 12 वर्ष तक संसद-सदस्य रहे, बाद में उन्हें सन 1964 से 1965 ई. तक भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया। लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार ने उन्हें 1965 से 1971 ई. तक अपना हिन्दी सलाहकार नियुक्त किया और वह फिर दिल्ली लौट आए। फिर तो ज्वार उमरा और रेणुका, हुंकार, रसवंती और द्वंद्वगीत रचे गए। रेणुका और हुंकार की कुछ रचनाऐं यहाँ-वहाँ प्रकाश में आईं और अग्रेज़ प्रशासकों को समझते देर न लगी कि वे एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं। चार वर्ष में बाईस बार उनका तबादला किया गया।
प्रमुख कृतियाँ
उन्होंने सामाजिक और आर्थिक समानता और शोषण के खिलाफ कविताओं की रचना की। एक प्रगतिवादी और मानववादी कवि के रूप में उन्होंने ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को ओजस्वी और प्रखर शब्दों का तानाबाना दिया। उनकी महान रचनाओं में रश्मिरथी और परशुराम की प्रतीक्षा शामिल है। उर्वशी को छोड़कर दिनकर की अधिकतर रचनाएँ वीर रस से ओतप्रोत है। भूषण के बाद उन्हें वीर रस का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है।
ज्ञानपीठ से सम्मानित उनकी रचना उर्वशी की कहानी मानवीय प्रेम, वासना और सम्बन्धों के इर्द-गिर्द घूमती है। उर्वशी स्वर्ग परित्यक्ता एक अप्सरा की कहानी है। वहीं, कुरुक्षेत्र, महाभारत के शान्ति-पर्व का कवितारूप है। यह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लिखी गयी रचना है। वहीं सामधेनी की रचना कवि के सामाजिक चिन्तन के अनुरुप हुई है। संस्कृति के चार अध्याय में दिनकरजी ने कहा कि सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद भारत एक देश है। क्योंकि सारी विविधताओं के बाद भी, हमारी सोच एक जैसी है।
विस्तृत दिनकर साहित्य सूची नीचे दी गयी है-
काव्य1. बारदोली-विजय संदेश (1928) 2. प्रणभंग (1929) 3. रेणुका (1935) 4. हुंकार (1938) 5. रसवन्ती (1939) 6.द्वंद्वगीत (1940) 7. कुरूक्षेत्र (1946) 8. धूप-छाँह (1947) 9. सामधेनी (1947) 10. बापू (1947) 11. इतिहास के आँसू (1951) 12. धूप और धुआँ (1951) 13. मिर्च का मजा (1951) 14. रश्मिरथी (1952) 15. दिल्ली (1954) 16. नीम के पत्ते (1954) 17. नील कुसुम (1955) 18. सूरज का ब्याह (1955) 19. चक्रवाल (1956) 20. कवि-श्री (1957) 21. सीपी और शंख (1957) 22. नये सुभाषित (1957) 23. लोकप्रिय कवि दिनकर (1960) 24. उर्वशी (1961) 25. परशुराम की प्रतीक्षा (1963) 26. आत्मा की आँखें (1964) 27. कोयला और कवित्व (1964) 28. मृत्ति-तिलक (1964) 29. दिनकर की सूक्तियाँ (1964) 30. हारे को हरिनाम (1970) 31. संचियता (1973) 32. दिनकर के गीत (1973) 33. रश्मिलोक (1974) 34. उर्वशी तथा अन्य शृंगारिक कविताएँ (1974) गद्य35. मिट्टी की ओर 1946 36. चित्तौड़ का साका 1948 37. अर्धनारीश्वर 1952 38. रेती के फूल 1954 39. हमारी सांस्कृतिक एकता 1955 40. भारत की सांस्कृतिक कहानी 1955 41. संस्कृति के चार अध्याय 1956 42. उजली आग 1956 43. देश-विदेश 1957 44. राष्ट्र-भाषा और राष्ट्रीय एकता 1955 45. काव्य की भूमिका 1958 46. पन्त-प्रसाद और मैथिलीशरण 1958 47. वेणुवन 1958 48. धर्म, नैतिकता और विज्ञान 1969 49. वट-पीपल 1961 50. लोकदेव नेहरू 1965 51. शुद्ध कविता की खोज 1966 52. साहित्य-मुखी 1968 53. राष्ट्रभाषा आंदोलन और गांधीजी 1968 54. हे राम! 1968 55. संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ 1970 56. भारतीय एकता 1971 57. मेरी यात्राएँ 1971 58. दिनकर की डायरी 1973 59. चेतना की शिला 1973 60. विवाह की मुसीबतें 1973 61. आधुनिक बोध 1973 आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था "दिनकरजी अहिंदीभाषियों के बीच हिन्दी के सभी कवियों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय थे और अपनी मातृभाषा से प्रेम करने वालों के प्रतीक थे।" हरिवंश राय बच्चन ने कहा था "दिनकरजी को एक नहीं, बल्कि गद्य, पद्य, भाषा और हिन्दी-सेवा के लिये अलग-अलग चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने चाहिये।" रामवृक्ष बेनीपुरी ने कहा था "दिनकरजी ने देश में क्रान्तिकारी आन्दोलन को स्वर दिया।" नामवर सिंह ने कहा है "दिनकरजी अपने युग के सचमुच सूर्य थे।" प्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने कहा था कि दिनकरजी की रचनाओं ने उन्हें बहुत प्रेरित किया। प्रसिद्ध रचनाकार काशीनाथ सिंह के अनुसार 'दिनकरजी राष्ट्रवादी और साम्राज्य-विरोधी कवि थे।' रचनाओं के कुछ अंशकिस भांति उठूँ इतना ऊपर? मस्तक कैसे छू पाउँ मैं? ग्रीवा तक हाथ न जा सकते, उँगलियाँ न छू सकती ललाट वामन की पूजा किस प्रकार, पहुँचे तुम तक मानव विराट?
वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो चट्टानों की छाती से दूध निकालो है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो (वीर से) सम्मानदिनकरजी को उनकी रचना कुरुक्षेत्र के लिये काशी नागरी प्रचारिणी सभा, उत्तरप्रदेश सरकार और भारत सरकार से सम्मान मिला। संस्कृति के चार अध्याय के लिये उन्हें 1959 में साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें 1959 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया। भागलपुर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलाधिपति और बिहार के राज्यपाल जाकिर हुसैन, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने, ने उन्हें डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया। गुरू महाविद्यालय ने उन्हें विद्या वाचस्पति के लिये चुना। 1968 में राजस्थान विद्यापीठ ने उन्हें साहित्य-चूड़ामणि से सम्मानित किया। वर्ष 1972 में काव्य रचना उर्वशी के लिये उन्हें ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया। 1952 में वे राज्यसभा के लिए चुने गये और लगातार तीन बार राज्यसभा के सदस्य रहे। मरणोपरान्त सम्मान30 सितम्बर 1987 को उनकी 13वीं पुण्यतिथि पर तत्कालीन राष्ट्रपति जैल सिंह ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। 1999 में भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया। केंद्रीय सूचना और प्रसारण मन्त्री प्रियरंजन दास मुंशी ने उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर रामधारी सिंह दिनकर- व्यक्तित्व और कृतित्व पुस्तक का विमोचन किया। उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार ने उनकी भव्य प्रतिमा का अनावरण किया। कालीकट विश्वविद्यालय में भी इस अवसर को दो दिवसीय सेमिनार का आयोजन किया गया। बाहरी कड़ियाँ
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- जीवनी एवं रचनाएँ अनुभूति पर.
- साहित्य अकादमी पुरस्कार
- Sahitya Akademi Awards 1955-2007 साहित्य अकादमी पुरस्कारों का आधिकारिक जाल स्थल
- "Top 100 famous epics of the World" [विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ प्रबन्ध काव्य] (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 9 दिसम्बर 2013.