सेन राजवंश

सेैन राजवंश एक राजवंश का नाम था, जिसने १२वीं शताब्दी के मध्य से बंगाल पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। सेन राजवंश ने बंगाल पर १६० वर्ष राज किया। इस वंश का मूलस्थान कर्णाटक था तथा ये सैन (नाई )जाति के थे। इन्हेें सैन नंद मौर्य वंश भी कहा जाता था। इस काल में अनेक मन्दिर बने। धारणा है कि बल्लाल सेन ने ढाकेश्वरी मन्दिर बनवाया। कवि जयदेव (गीत-गोविन्द का रचयिता) लक्ष्मण सेन के पंचरत्न थे। यह चक्रवर्ती सम्राट महापदम नंद की संताने थी यह एक क्षत्रिय राजवंश है इस राजवंश में अनेक वीर हुए चक्रवर्ती सम्राट महापदम नंद के डर से विश्व विजेता सिकंदर भारत छोड़कर भाग गया यह चंद्रवंशी शाखा है नंदो का साम्राज्य सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक संपन्नता एवं सैन्य संगठन का चरम बिंदु था। इनकी विशालतम सुसंगठित सेना में 200000 पैदल, 80000 अश्वारोही, 8000 संग्राम रथ, 6000 हाथी थे। जिसकी सहायता से सम्राट महापद्मनंद ने उत्तर पश्चिम, दक्षिण पूर्व दिशा में बहुत बड़ी सैनिक विजय प्राप्त की और उस समय के लगभग सभी आस पड़ोस के साम्राज्यो का अंत कर के उन का नामोनिशान मिटा दिया। इसी कारण इन्हें पुराणों में सर्वक्षत्रांतक अथवा दूसरा परशुराम कहा गया है।

कर्टियस के अनुसार चक्रवर्ती सम्राट महापद्मनंद की सेना में 20,000 घुड़सवार दो लाख पैदल 2000 रथ एवं 3000 हाथी थे। डायोडोरस के अनुसार नंद शासन के पास 4000 हाथी थे, जबकि प्लूटार्क ने 80000 अश्र्वरोही, 7200000 की पैदल सेना 8000 घोड़ा वाला रथ और 6000 हाथी की सेना थी। विश्व विजेता सिकंदर ने भारत पर आक्रमण के समय सम्राट घनानंद की विशालतम सेना देख कर के हौसला पस्त हो गया । इतनी विशालतम शक्ति के सामने सिकंदर जैसे महान विश्व विजेता ने भी नतमस्तक होकर वापस लौटने में ही अपनी भलाई समझी।नंद वंश के उत्तराधिकारी 1)पंडुक अथवा सहलिन (बंगाल का सेन वंश)  :- नंदराज महापद्मनंद के जेष्ट पुत्र पंडुक जिनको पुराणों में सहल्य अथवा सहलिन कहा गया है चक्रवर्ती सम्राट महापदम नंद के शासनकाल में उत्तर बिहार में स्थित वैशाली के कुमार थे ।तथा उनकी मृत्यु के बाद भी उनके वंशज मगध साम्राज्य पर शासन करते रहे। इन के वंशज आगे चलकर पूरब दक्षिण की ओर बंगाल चले गए और अपने पूर्वज चक्रवर्ती सम्राट महापदम नंद के नाम पर सेन नामांतरण कर शासन करने लगे और उसी कुल से बंगाल के आज सूर्य राजा वीरसेन हुई जो मथुरा सुकेत स्थल एवं मंडी के सेन वंश के जनक बन गए जो 330 ईसवी पूर्व से 1290 ईस्वी पूर्व तक शासन किए। और सैन वंश में राजा दाहिर सेैन हुए जिन्होंने सिंध पर राज किया और फिर राजा विक्रमादित्य सैन हुए जिन्होंने भारत को सोने की चिड़िया बनाया

2) पंडू गति अथवा सुकल्प (अयोध्या का देव वंश) :- आनंद राज के द्वितीय पुत्र को महाबोधि वंश में पंडुगति तथा पुराणों में संकल्प कहा गया है ।कथासरित्सागर के अनुसार अयोध्या में नंद राज्य का सैन्य शिविर था जहां संकल्प एक कुशल प्रशासक एवं सेनानायक के रूप में रहकर उसकी व्यवस्था देखते थे तथा कौशल को अवध राज्य बनाने में अपनी अहम भूमिका निभाई अवध राज्य आणि वह राज्य जहां किसी भी प्रकार की हिंसा या बलि पूजा नहीं होती हो जबकि इसके पूर्व यहां पूजा में पशुबलि अनिवार्य होने का विवरण प्राचीन ग्रंथों में मिलता है जिस को पूर्णतया समाप्त कराया और यही कारण है कि उन्हें सुकल्प तक कहा गया है यानी अच्छा रहने योग्य स्थान बनाने वाला इन्हीं के उत्तराधिकारी 185 ईस्वी पूर्व के बाद मूल्य वायु देव देव के रूप में हुए जिनके सिक्के अल्मोड़ा के पास से प्राप्त हुए हैं

3) भूत पाल अथवा भूत नंदी (विदिशा का नंदी वंश) :- चक्रवर्ती सम्राट महापद्मनंद के तृतीय पुत्र भूत पाल विदिशा के कुमार अथवा प्रकाशक थे।नंदराज के शासनकाल में उनकी पश्चिम दक्षिण के राज्यों के शासन प्रबंध को देखते थे। विदिशा के यह शासक कालांतर में पद्मावती एवं मथुरा के भी शासक रहे तथा बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार की इतिहासकारों ने भूतनंदी के शासनकाल को 150 वर्ष पूर्व से मानते हैं।

4 )राष्ट्रपाल (महाराष्ट्र का सातवाहन कलिंग का मेघ वाहन वंश) :- महाबोधि वंश के अनुसार नंदराज के चौथे पुत्र राष्ट्रपाल थे। राष्ट्रपाल के कुशल प्रशासक एवं प्रतापी होने से इस राज्य का नाम राष्ट्रपाल के नाम पर महाराष्ट्र कहा जाने लगा यह गोदावरी नदी के उत्तर तट पर पैठन अथवा प्रतिष्ठान नामक नगर को अपनी राजधानी बनाई थी। राष्ट्रपाल द्वारा ही मैसूर के क्षेत्र, अश्मक राज्य एवं महाराष्ट्र के राज्यों की देखभाल प्रशासक के रूप में की जाती थी जिसकी केंद्रीय व्यवस्था नंदराज महापद्मनंद के हाथों में रहती थी। राष्ट्रपाल के पुत्र ही सातवाहन एवं मेघवाल थे ।जो बाद में पूर्वी घाट उड़ीसा क्षेत्र पश्चिमी घाट महाराष्ट्र क्षेत्र के अलग-अलग शासक बन गए। ब्राहमणी ग्रंथों पुराणों में इन्हें आंध्र भृत्य कहा गया है।

5) गोविशाणक(उत्तराखंड का कुलिंद वंश) :- महाबोधि वंश के अनुसार नंदराज महापद्मनंद के पांचवे पुत्र गोविशाणक थे। नंदराज ने उत्तरापथ में विजय अर्जित किया था। महापद्मनंद द्वारा गोविशाणक को प्रशासक बनाते समय एक नए नगर को बसाया गया था ।वहां उसके लिए किला भी बनवाया गया। इसका नामकरण गोविशाणक नगर रखा गया।उनके उत्तराधिकारी क्रमशः विश्वदेव,धन मुहूर्त,वृहतपाल,विश्व शिवदत्त,हरिदत्त, शिवपाल,चेतेश्वर,भानु रावण,हुई जो लगभग 232 ईसवी पूर्व से 290 ईसवी तक शासन किया।

6) दस सिद्धक चक्रवर्ती सम्राट महापद्मनंद के छठवें पुत्र दस सिद्धक थे। :- नंद राज्य की एक राजधानी मध्य क्षेत्र के लिए वाकाटक मे थी जहां दस सिद्धक ने अपनी राजधानी बनाया। किंतु इनके पिता महा नंदिवर्धन के नाम पर नंदराज द्वारा बताए गए सुंदर नगर नंदिवर्धन नगर को भी इन्होंने अपनी राजधानी के रूप में प्रयुक्त किया जो आज नागपुर के नाम से जाना जाता है। सर्वप्रथम विंध क्षेत्र में अपनी शक्ति का संवर्धन किया इसलिए उन्हें विंध्य शक्ति भी कहा गया। जिन्होंने 250 ईसवी पूर्व से 510 ईसवी तक शासन किया।

7) कैवर्त नंदराज महापद्मनंद के सातवें पुत्र थे :- जिनका वर्णन महाबोधि वंश में किया गया है ।यह एक महान सेनानायक एवं कुशल प्रशासक थे। अन्य पुत्रों की तरह कैवर्त किसी राजधानी के प्रशासक ना होकर बल्कि अपने पिता के केंद्रीय प्रशासन के मुख्य संचालक थे ।तथा सम्राट महापद्मनंद जहां कहीं भी जाते थे, मुख्य अंगरक्षक के रूप में उनके साथ साथ रहते थे प्रथम पत्नी से उत्पन्न दोनों छोटे पुत्र कैवर्त और घनानंद तथा दूसरी पत्नी पुरा से उत्पन्न चंद्रनंद अथवा चंद्रगुप्त तीनों पुत्र नंद राज के पास पाटलिपुत्र की राजधानी में रहकर उनके कार्यों में सहयोग करते थे। जिसमें चंद्रगुप्त सबसे छोटा व कम उम्र का था। कैवर्त की मृत्यु सम्राट महापद्मनंद के साथ ही विषयुक्त भोजन करने से हो गई जिससे उनका कोई राजवंश आगे नहीं चल सका।

8) सम्राट घनानंद :- घनानंद जब युवराज था तब आनेको शक्तिशाली राज्यों को मगध साम्राज्य के अधीन करा दिया। नंदराज महापद्मनंद की मृत्यु के बाद 326 ईसवी पूर्व में घनानंद मगध का सम्राट बना। नंदराज एवं भाई कैवर्त की मृत्यु के बाद यह बहादुर योद्धा शोकग्रस्त रहने लगा। फिर भी इसकी बहादुरी की चर्चा से कोई भी इसके साम्राज्य की तरफ आक्रमण करने की हिम्मत नहीं कर सका। विश्वविजेता सिकंदर ने भी नंद साम्राज्य की सैन्यशक्ति एवं समृद्धि देख कर ही भारत पर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं की और वापस यूनान लौट जाने में ही अपनी भलाई समझी। सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस की सैनिक मदद से इनका सौतेला भाई चंद्रगुप्त 322 ईसवी पूर्व में मगध की सत्ता प्राप्त करने की लड़ाई किया जिससे युद्ध के दौरान घनानंद की मृत्यु हो गई और मगध की सत्ता चंद्रगुप्त को प्राप्त हुई।

9. चंद्रनंद अथवा चंद्रगुप्त :- सम्राट महापदमनंद की मुरा दूसरी पत्नी से उत्पन्न पुत्र का नाम चंद्रगुप्त चंद्रनंद था। जिसे मौर्य वंश का संस्थापक कहा गया है मुद्राराक्षस में चंद्रगुप्त को नंद की संतान तथा वायु पुराण में चंद्रगुप्त को नंदवंशी राजा कहा गया है।

सारांश ३४४ ई. पू. में सम्राट महापद्यनन्द ने नन्द वंश की स्थापना की। सम्राट महापदम नंद को भारत का प्रथम ऐतिहासिक चक्रवर्ती सम्राट होने का गौरव प्राप्त है। सम्राट महापदम नंद को केंद्रीय शासन पद्धति का जनक भी कहा जाता है । पुराणों में इन्हें महापद्म तथा महाबोधिवंश में उग्रसेन कहा गया है। यह सेन (नाई )जाति के थे

सेैन राजवंश मूलतः सैन जाति के लोगों का था, यह आज आधुनिक भारत में पश्चिम बंगाल, असम, त्रिपुरा, हरियाणा, पंजाब ,राजस्थान मै सैन जाति भारत कि एक मुख्य जाती है जो भगवान धनवंतरी के वंशज हैं। वही कुछ मीटा दीये गए लेकिन किसी ने सही ही कहा है की सच छिपाया नहीं जा सकता है !

अगर हम कुछ महान हिंदू ग्रंथ देखें हमने पाया कि भगवान कृष्ण के पिता वासुदेव सेन वंश के राजा थे उनके पिता सामुन्द्रविजय सेन थे !

वही भगवान श्री कृष्ण किसी वंच को बढ़ावा नही देना चाहते थे इसीलिए उन्होंने वंच पर अधिक जोर नहीं दिया !

भगवान ने सदैव वर्णो का विरोध किया ।

भगवान् तो महान थे इसी कारण उनके वंचजो ने भी सेन वंश के नाम को बढ़ावा नहीं दिया

उन्होंने सेन वंश को राजनीती का नाम नहीं दिया

यदि उन्होंने सेन वंश को भगवान् से जोड़कर उनका वंच बताकर राजनीती की होती तो आज सेन वंश ही सबसे उचित वंच होता !

लेकिन ऐसा कार्य एक घटिया कार्य होता न कि एक अच्छा कार्य ।

श्री कृष्ण से सेन वंश को उचित ज्ञान प्राप्त हुआ

इसी ज्ञान के कारण सेन वंश ने सेन वंश के नाम पर राजनीति नही की । श्री कृष्ण ने जब धरती छोड़ी तब से सेन वंश के वंशजों ने सेन वंश की राजगद्दी का त्याग कर प्रभु भगती और ज्ञान बाटने में लग गए । वही सेन वंश के लोग अधिक ज्ञानी थे ।

परिचय

इस वंश के राजा, जो अपने को महापदम नंद क्षत्रिय, सैन क्षत्रिय और क्षत्रिय मानते हैं, अपनी उत्पत्ति सैन नंद मौर्य जाति से मानते हैं, जो दक्षिणापथ या दक्षिण के शासक माने जाते हैं। ९वीं, १०वीं और ११वीं शताब्दी में मैसूर राज्य के धारवाड़ जिले में कुछ जैन उपदेशक रहते थे, जो सेैन वंश से संबंधित थे। यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि बंगाल के सेैनों का इन जैन उपदेशकों के परिवार से कई संबंध था। फिर भी इस बात पर विश्वास करने के लिए समुचित प्रमाण है कि बंगाल के सेैनों का मूल वासस्थान दक्षिण था। देवपाल के समय से पाल सम्राटों ने विदेशी साहसी वीरों को अधिकारी पदों पर नियुक्त किया। उनमें से कुछ कर्णाटक देश से संबंध रखते थे। कालांतर में ये अधिकारी, जो दक्षिण से आए थे, शासक बन गए और स्वयं को राजपुत्र कहने लगे। राजपुत्रों के इस परिवार में बंगाल के सेैन राजवंश का प्रथम शासक चक्रवर्ती सम्राट महापदम नंद उत्पन्न हुआ था।

सामंतसेन ने दक्षिण के एक शासक, संभवत: द्रविड़ देश के राजेंद्रचोल, को परास्त कर अपनी प्रतिष्ठा में वृद्धि की। सामंतसेन का पौत्र विजयसेन ही अपने परिवार की प्रतिष्ठा को स्थापित करने वाला था। उसने वंग के वर्मन शासन का अंत किया, विक्रमपुर में अपनी राजधानी स्थापित की, पालवंश के मदनपाल को अपदस्थ किया और गौड़ पर अधिकार कर लिया, नान्यदेव को हराकर मिथिला पर अधिकार किया, गहड़वालों के विरुद्ध गंगा के मार्ग से जलसेना द्वारा आक्रमण किया, आसाम पर आक्रमण किया, उड़ीसा पर धावा बोला और कलिंग के शासक अनंत वर्मन चोड़गंग के पुत्र राघव को परास्त किया। उसने वारेंद्री में एक प्रद्युम्नेश्वर शिव का मंदिर बनवाया। विजयसेन का पुत्र एवं उत्तराधिकारी वल्लाल सेन विद्वान तथा समाज सुधारक था। बल्लालसेन के बेटे और उत्तराधिकारी लक्ष्मण सेन ने काशी के गहड़वाल और आसाम पर सफल आक्रमण किए, किंतु सन् १२०२ के लगभग इसे पश्चिम और उत्तर बंगाल मुहम्मद खलजी को समर्पित करने पड़े। कुछ वर्ष तक यह वंग में राज्य करता रहा। इसके उत्तराधिकारियों ने वहाँ १३वीं शताब्दी के मध्य तक राज्य किया, तत्पश्चात् देववंश ने देश पर सार्वभौम अधिकार कर लिया। सेन सम्राट विद्या के प्रतिपोषक थे।

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