नामदेव
श्री नामदेव जी भारत के प्रसिद्ध संत हैं।[1][2] विश्व भर में उनकी पहचान "संत शिरोमणि" के रूप में जानी जाती है। इनके समय में नाथ और महानुभाव पंथों का महाराष्ट्र में प्रचार था।r
संत नामदेव जी / भगत नामदेव जी | |
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जन्म |
कार्तिक सुदी ११, संवत् १३२७, 13 अक्टूबर 1270 ई.महाराष्ट्र, भारत |
दर्शन | वारकरी संप्रदाय |
साहित्यिक कार्य | अभंग भक्ति काव्य |
धर्म | हिन्दू |
दर्शन | वारकरी संप्रदाय |
संत शिरोमणि श्री नामदेवजी का जन्म "पंढ़रपुर", महाराष्ट्र (भारत) में "26 अक्टूबर, 1270 , कार्तिक शुक्ल एकादशी संवत् १३२७, रविवार" को सूर्योदय के समय हुआ था। महाराष्ट्र के सातारा जिले में कृष्णा नदी के किनारे बसा "नरसी बामणी गाँव, जिला परभणी उनका पैतृक गांव है." संत शिरोमणि श्री नामदेव जी का जन्म "शिम्पी" (मराठी) , जिसे राजस्थान में "छीपा" भी कहते है, परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम दामाशेठ और माता का नाम गोणाई (गोणा बाई) था। इनका परिवार भगवान विट्ठल का परम भक्त था। नामदेवजी का विवाह कल्याण निवासी राजाई (राजा बाई) के साथ हुआ था और इनके चार पुत्र व पुत्रवधु यथा "नारायण - लाड़ाबाई", "विट्ठल - गोडाबाई", "महादेव - येसाबाई" , व "गोविन्द - साखराबाई" तथा एक पुत्री थी जिनका नाम लिम्बाबाई था। श्री नामदेव जी की बड़ी बहन का नाम आऊबाई था। उनके एक पौत्र का नाम मुकुन्द व उनकी दासी का नाम "संत जनाबाई" था, जो संत नामदेवजी के जन्म के पहले से ही दामाशेठ के घर पर ही रहती थी। संत शिरोमणि श्री नामदेवजी के नानाजी का नाम गोमाजी और नानीजी का नाम उमाबाई था।
संत नामदेवजी ने विसोबा खेचर को गुरु के रूप में स्वीकार किया था। विसोबा खेचर का जन्म स्थान पैठण था, जो पंढरपुर से पचास कोस दूर "ओंढ्या नागनाथ" नामक प्राचीन शिव क्षेत्र में हैं। इसी मंदिर में इन्होंने संत शिरोमणि श्री नामदेवजी को शिक्षा दी और अपना शिष्य बनाया। संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर के समकालीन थे और उम्र में उनसे 5 साल बड़े थे। संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर, संत निवृत्तिनाथ, संत सोपानदेव इनकी बहिन बहिन मुक्ताबाई व अन्य समकालीन संतों के साथ पूरे महाराष्ट्र के साथ उत्तर भारत का भ्रमण कर "अभंग"(भक्ति-गीत) रचे और जनता जनार्दन को समता और प्रभु-भक्ति का पाठ पढ़ाया। संत ज्ञानेश्वर के परलोकगमन के बाद दूसरे साथी संतों के साथ इन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया। इन्होंने मराठी के साथ साथ हिन्दी में भी रचनाएँ लिखीं। इन्होंने लगभग अठारह से बीस वर्षो तक पंजाब में भगवन्नाम का प्रचार किया। अभी भी इनकी कुछ रचनाएँ सिक्खों की धार्मिक पुस्तक " गुरू ग्रंथ साहिब" में मिलती हैं। इसमें संत नामदेवजी के 61पद संग्रहित हैं। आज भी इनके रचित अभंग पूरे महाराष्ट्र में भक्ति और प्रेम के साथ गाए जाते हैं। ये संवत् १४०७ में समाधि में लीन हो गए।
सन्त नामदेवजी के समय में नाथ और महानुभाव पंथों का महाराष्ट्र में प्रचार था। नाथ पंथ "अलख निरंजन" की योगपरक साधना का समर्थक तथा बाह्याडंबरों का विरोधी था और महानुभाव पंथ वैदिक कर्मकांड तथा बहुदेवोपासना का विरोधी होते हुए भी मूर्तिपूजा को सर्वथा निषिद्ध नहीं मानता था। इनके अतिरिक्त महाराष्ट्र में पंढरपुर के "विठोबा" की उपासना भी प्रचलित थी। संत नामदेवजी पंढ़रपुर में वारी प्रथा शुरू करवाने के जनक हैं। इनके द्वारा शुरू की गई प्रथा अंतर्गत आज भी सामान्य जनता प्रतिवर्ष आषाढ़ी और कार्तिकी एकादशी को उनके दर्शनों के लिए पंढरपुर की "वारी" (यात्रा) किया करती थी (यह प्रथा आज भी प्रचलित है), इस प्रकार की वारी (यात्रा) करनेवाले "वारकरी" कहलाते हैं। विट्ठलोपासना का यह "पंथ" "वारकरी" संप्रदाय कहलाता है। श्री नामदेव इसी संप्रदाय के प्रमुख संत माने जाते हैं।
नामदेव जी का कालनिर्णय
वारकरी संत नामदेव के समय के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। मतभेद का कारण यह है कि महाराष्ट्र में नामदेव नामक पाँच संत हो गए हैं और उन सब ने थोड़ी बहुत "अभंग" और पदरचना की है। आवटे की "सकल संतगाथा" में नामदेव के नाम पर 2500 अभंग मिलते हैं। लगभग 600 अभंगों में केवल नामदेव या "नामा" की छाप है और शेष में "विष्णुदासनामा" की।
कुछ विद्वानों के मत से दोनों "नामा" एक ही हैं। विष्णु (विठोबा) के दास होने से नामदेव ने ही संभवत: अपने को विष्णुदास "नामा" कहना प्रारंभ कर दिया हो। इस संबध में महाराष्ट्र के प्रसिद्ध इतिहासकार वि. का. राजवाड़े का कथन है कि "नामा" शिंपी ""(छीपा)"" का काल शके 1192 से 1272 तक है। विष्णुदासनामा का समय शके 1517 है। यह एकनाथ के समकालीन थे। प्रो॰ रानाडे ने भी राजवाड़े के मत का समर्थन किया है। श्री राजवाड़े ने विष्णुदास नामा की "बावन अक्षरी" प्रकाशित की है जिसमें "नामदेवराय" की वंदना की गई है। इससे भी सिद्ध होता है कि ये दोनों व्यक्ति भिन्न हैं और भिन्न भिन्न समय में हुए हैं। चांदोरकर ने महानुभावी "नेमदेव" को भी वारकरी नामदेव के साथ जोड़ दिया है। परंतु डॉ॰ तुलपुले का कथन है कि यह भिन्न व्यक्ति है और कोली जाति का है। इसका वारकरी नामदेव से कोई संबंध नहीं है। नामदेव के समसामयिक एक विष्णुदास नामा कवि का और पता चला है पर यह महानुभाव संप्रदाय के हैं। इन्होने महाभारत पर ओवीबद्ध ग्रंथ लिखा है। इसका वारकरी नामदेव से कोई संबंध नहीं है।
नामदेव विषयक एक और विवाद है। "गुरु ग्रन्थ साहिब" में नामदेव के 61 पद संग्रहित हैं। महाराष्ट्र के कुछ विवेचकों की धारणा है कि गुरुग्रंथ साहब के 'नामदेव' पंजाबी हैं, महाराष्ट्रीय नहीं। यह हो सकता है, वह महाराष्ट्रीय वारकरी नामदेव का कोई शिष्य रहा हो और उसने अपने गुरु के नाम पर हिन्दी में पद रचना की हो। परंतु महाराष्ट्रीय वारकरी नामदेव ही के हिंदी पद गुरुग्रंथसाहब में संकलित हैं क्योंकि नामदेव के मराठी अभंगों और गुरुग्रंथसाहब के पदों में जीवन घटनाओं तथा भावों, यहाँ तक कि रूपक और उपमाओं की समानता है। अत: मराठी अभंगकार नामदेव और हिंदी पदकार नामदेव एक ही सिद्ध होते हैं।
महाराष्ट्रीयन विद्वान् वारकरी नामदेव जी को ज्ञानेश्वर का समसामयिक मानते हैं और ज्ञानेश्वर का समय उनके ग्रंथ "ज्ञानेश्वरी" से प्रमाणित हो जाता है। ज्ञानेश्वरी में उसका रचनाकाल "1212 शके" दिया हुआ है। डॉ॰ मोहनसिंह दीवाना नामदेव के काल को खींचकर 14वीं और 15वीं शताब्दी तक ले जाते हैं। परंतु उन्होंने अपने मतसमर्थन का कोई अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया। नामदेव की एक प्रसिद्ध रचना "तीर्थावली" है जिसकी प्रामाणिकता निर्विवाद है। उसमें ज्ञानदेव और नामदेव की सहयात्राओं का वर्णन है। अत: ज्ञानदेव और नामदेव का समकालीन होना साक्ष्य से भी सिद्ध है। नामदेव, ज्ञानेश्वर की समाधि के लगभग 55 वर्ष बाद तक और जीवित रहे। इस प्रकार नामदेव का काल शके 1192 से शके 1272 तक माना जाता है।
जीवनचरित्र
नामदेव जी का जन्म 26 अक्टूबर 1270, रविवार में प्रथम संवत्सर, संवत १३२७, कार्तिक शुक्ल एकादशी को पंढरपुर में हुआ था। नामदेवजी का पैतृक गाँव नरसी ब्राह्मणी नामक ग्राम था. नरसी ब्राह्मणी के मूलनिवासी दामा शेठ की जाति "शिम्पी"(मराठी में) हैं, जिसे राजस्थान में "छीपा" व उत्तरी भारत में "छीपी" कहते है, के यहाँ पंढ़रपुर में हुआ था। दामासेठ और उसकी पत्नी जो कि बुजूर्ग थे, ने बच्चे के लिये पूजा अर्चना की तो उनको विट्ठल के आशीर्वाद से पंढ़रपुर में पुत्र की प्राप्ति हुई. किशोरावस्था में पंढरपुर में ही इनकी ज्ञानेश्वरजी से भेंट हुई और उनकी प्रेरणा से इन्होंने नाथपंथी विसोबा खेचर से दीक्षा ली। जो नामदेव पंढरपुर के "विट्ठल" की प्रतिमा में ही भगवान को देखते थे, वे खेचर के संपर्क में आने के बाद उसे सर्वत्र अनुभव करने लगे। उनको प्रेमाभक्ति में ज्ञान का समावेश हो गया। डॉ॰ मोहनसिंह, "नामदेव" को रामानंद का शिष्य बतलाते हैं। परन्तु महाराष्ट्र में इनकी बहुमान्य गुरु परंपरा इस प्रकार है - ज्ञानेश्वर जी और नामदेव जी ने उत्तर भारत की साथ-साथ यात्रा की थी। ज्ञानेश्वर मारवाड़ में कोलायत (बीकानेर) नामक स्थान तक ही नामदेव जी के साथ गए थे। वहाँ से लौटकर ज्ञानेश्वरजी ने "आळंदी" में शके 1218 में समाधि ले ली। ज्ञानेश्वर के वियोग से नामदेवजी का मन महाराष्ट्र से उचट गया और ये पंजाब की ओर चले गए। गुरुदासपुर जिले के "घुमान" नामक स्थान पर आज भी नामदेव जी का मंदिर/गुरूद्वारा विद्यमान है। वहाँ सीमित क्षेत्र में इनका "पंथ" भी चल रहा है। संतों के जीवन के साथ कतिपय चमत्कारी घटनाएँ जुड़ी रहती है। नामदेव के चरित्र में भी सुल्तान की आज्ञा से इनका मृत गाय को जिलाना, पूर्वाभिमुख भगवान जगमोहनजी(कृष्ण) मंदिर के सामने कीर्तन करने पर पूजारी के आपत्ति उठाने के उपरांत इनके पश्चिम की ओर जाते ही उसके द्वार का पश्चिमाभिमुख हो जाना, घटना राजस्थान के पाली जिले में मारवाड़ के पास "बारसा" नामक गाँव में कृष्ण भगवान जिन्हें स्थानीय लोग भगवान जगमोहनजी कहते हैं, के पौराणिक मंदिर की घटना का वृतांत भी मिलता हैं। इसका उल्लेख "हंसनिर्वाणी संत मोहनानंदजी महाराज" द्वारा अपने हस्तलिखित पुस्तक में किया हैं, जिस पर शोध कर पाली के "गुड़ाएन्दला गाँव" निवासी ""छीपा श्री अशोक आर.गहलोत, अहमदाबाद"" ने सैद्धांतिक व प्रायोगिक प्रमाणों के साथ "सन् 2003" में उजागर किया। जहां "नामदेव भक्ति संप्रदाय संघ" के प्रणेता ह.भ.प. श्री रामकृष्ण जगन्नाथ बगाडे महाराज, पुणे ने राष्ट्रीय स्तर का अधिवेशन कर इस स्थान की पुष्टि सन् 2005 में की), विट्ठल की मूर्ति का इनके हाथ दुग्धपान करना, आदि घटनाएँ समाविष्ट हैं। महाराष्ट्र के पंढरपुर स्थित विट्ठल मंदिर के महाद्वार पर शके 1272 में परिवार के एक सदस्य(बडे बेटे की बहु) को छोड़कर संजीवन समाधि ले ली। कुछ विद्वान् इनका समाधिस्थान घुमान मानते हैं, परंतु बहुमत पंढरपुर के ही पक्ष में हैं।
संत नामदेव जी की यात्रायों के समय उनके साथ श्री निवृत्तिनाथ , श्री सोपानदेव, श्री ज्ञानेश्वर , बहिन मुक्ताबाई , श्री चोखा मेला (नामदेवजी के शिष्य - जाती से धेड़ - गांव मंगलवेढा), सांवता माली (गांव - आरण मेंढी), नरहरि सुनार (गांव - पंढरपुर) थे। संत शिरोमणि के प्रधान शिष्यो में संत जनाबाई (जो दामाशेठ के घर सेविका थी), परिसा भागवत (जिन्होंने प्रथम दीक्षा ग्रहण की थी), चोखामेला, केशव कलाधारी, लड्ढा, बोहरदास , जल्लो, विष्णुस्वामी, त्रिलोचन आदि थे , जिनके सामीप्य में उनके जीवन काल में भक्ति रस की सरिता बह निकली, जो आज भी अनवरत जारी है।
संत नामदेवजी घुमान (पंजाब) प्रवास के समय अपनी मण्डली के साथ मारवाड़ जंक्शन के पास "बारसा" गांव स्थित कृष्ण मंदिर, भगवान जगमोहनजी के मंदिर में रात्रि विश्राम के लिए रुके थे। जहां संत मंडली ने रात में विट्ठल का कीर्तन शुरू किया था। संत नामदेव अपने प्रभू श्री विट्ठल के साथ इस कदर कीर्तन में तल्लीन हो गए कि कब भौर हुई पता ही नहीं चला. प्रातःकाल मंदिर के ब्राह्मण पुजारी पूजा के लिए मंदिर प्रवेश कर रहे तो उन्हें पता चला कि कोई मराठी संत मंदिर के अहाते में नाच रहा हैं। मंदिर प्रवेश के लिए रास्ता नहीं मिला तो पुजारी ने गुस्से से नामदेव जी को प्रताडित कर मंदिर के पीछे जाकर अपना कीर्तन करने का आदेश दे दिया तो वे मंदिर के पीछे बैठकर दुःखी व अपमानित महसूस कर अपने आराध्य कृष्ण से करूणामयी पुकार से कीर्तन करने लगे। भक्त के आर्तनाद को महसूस कर प्रभू जगमोहनजी ने अपने पूरे मंदिर को ही पूर्व से पश्चिम की ओर घुमा दिया जहां उसका परम भक्त बैठा था। जिसका प्रमाण आज भी इस मंदिर में मौजूद हैं। जहां भक्त नामदेव व भगवान कृष्ण(जगमोहनजी) एक ही आधार पर समकक्ष बिराजमान हैं। ऐसा अनोखा दृश्य इतिहास में कहीं नहीं मिलता, जैसा आज "बारसाधाम" (मारवाड़ जंक्शन) राजस्थान में देखने को मिलता है। भगवान जगमोहनजी (ठाकुरजी) ने अपने प्रिय भक्त श्री नामदेव जी को सम्पूर्ण मंदिर सहित घूमकर दर्शन दिए। इस स्थल की जानकारी स्थानीय संतों ने अपने अपने जीवनकाल में दी हैं. हँसनिर्वाणी ब्रह्मलीन संत श्री मोहनानंदजी महाराज की पुस्तक "संत नामदेव जी एवं छीपा जाति का इतिहास" पर शोध करने वाले "छीपा अशोक आर. गहलोत, गुड़ाएन्दला" ने इसे सन् 2004 में "राजस्थान का पंढ़रपुर" बारसाधाम नाम दिया, जिसे संत ह.भ.प. रामकृष्ण बगाडे जी ने सन् 2005 में अपने कार्यक्रम में इस नाम पर मोहर लगाई. आज ये स्थान "राजस्थान का पंढरपुर" कहा जाता है। इस बात की पुष्टि इतिहासविद् और "बारसाधाम के खोजकर्ता छीपा श्री अशोक आर गहलोत, गुड़ाएन्दला, जिला पाली, राजस्थान ने समय समय पर छीपा जाति को अवगत कराई है.
नामदेव जी के मत
बिसोबा खेचर से दीक्षा लेने के पूर्व तक ये सगुणोपासक थे। पंढरपुर के विट्ठल (विठोबा) की उपासना किया करते थे। दीक्षा के उपरांत इनकी विट्ठलभक्ति सर्वव्यापक हो गई। महाराष्ट्रीय संत परंपरा के अनुसार इनकी निर्गुण भक्ति थी, जिसमें सगुण निर्गुण का काई भेदभाव नहीं था। उन्होंने मराठी में कई सौ अभंग और हिंदी में सौ के लगभग पद रचे हैं। इनके पदों में हठयोग की कुंडलिनी-योग-साधना और प्रेमाभक्ति की (अपने "राम" से मिलने की) "तालाबेली" (विह्वलभावना) दोनों हैं। निर्गुणी कबीर के समान नामदेव में भी व्रत, तीर्थ आदि बाह्याडंबर के प्रति उपेक्षा तथा भगवन्नाम एवं सतगुरु के प्रति आदर भाव विद्यमान है। कबीर के पदों में यत्र-तत्र नामदेव की भावछाया दृष्टिगोचर होती है। कबीर से पूर्व नामदेव ने उत्तर भारत में निर्गुण भक्ति का प्रचार किया, जो निर्विवाद है।
परलोक गमन
आपने तीन बार तीर्थ यात्राएं की व साधु संतो के साथ भ्रमण करते रहे। ज्यों ज्यों आपकी आयु बढती गई, त्यों त्यों आपका यश फैलता गया। आपने दक्षिण में बहुत प्रचार किया। आपके साथी संत ज्ञानेश्वर जी परलोक गमन कर गए तो आप भी कुछ उपराम रहने लग गए। जीवन के अंतिम दिनों में श्री नामदेवजी पुनः पंढरपुर आ गए और 3 जुलाई सन 1350 शनिवार को सपरिवार "संजीवन समाधी" लेकर मोक्ष प्राप्त किया। आज भी उनके भक्त इस दिन को "श्री नामदेव समाधि दिवस" के रूप में याद करके अपने को धन्य समझते है। उन्होंने समाधि भी श्री विट्ठल भगवन के मंदिर में जाने वाली सीढ़ियों (जिसे मराठी में "पायरी" कहते है) में ली। उनकी अंतिम इच्छा भी यही थी की श्री हरि विट्ठल के दर्शनार्थ जो भी भक्त मंदिर में प्रवेश करे तब उनकी रज कण मेरे माथे पर पड़े और वो श्री विट्ठल के दर्शन करे . आज भी वो स्थान "श्री नामदेव पायरी" के नाम से जाना जाता है।
साहित्यक देन
नामदेव जी ने जो वाणी उच्चारण की वह गुरुग्रंथ साहिब में भी मिलती है। बहुत सारी वाणी दक्षिण व महाराष्ट्र में गाई जाती है। आपकी वाणी पढ़ने से मन को शांति मिलती है व भक्ति की तरफ मन लगता है।
ठाकुर को दूध पिलाना
एक दिन नामदेव जी के पिता अपने पैतृक काम कपड़े बेचने के काम से बाहर जा रहे थे। उन्होंने नामदेव जी से कहा कि अब उनके स्थान पर वह ठाकुर की सेवा करेंगे जैसे - ठाकुर को स्नान कराना, मन्दिर को स्वच्छ रखना व ठाकुर को दूध चढ़ाना। जैसे सारी मर्यादा मैं पूर्ण करता हूँ वैसे तुम भी करना। देखना लापरवाही या आलस्य मत करना नहीं तो ठाकुर जी नाराज हो जाएँगे।
नामदेव जी ने वैसा ही किया जैसे पिताजी समझाकर गए थे। जब उन्होनें दूध का कटोरा भरकर ठाकुर जी के आगे रखा और हाथ जोड़कर बैठे व देखते रहे कि ठाकुर जी किस तरह दूध पीते हैं? मगर ठाकुरजी की मूर्ति कहां दूध पीने वाली थी? वह तो पत्थर की मूर्ति थे। उन्होंने विनती करनी शुरू की हे प्रभु! मैं तो आपका छोटा सा सेवक हूँ, दूध लेकर आया हूँ कृपा करके इसे ग्रहण कीजिए। भक्त ने अपनी बेचैनी इस प्रकार प्रगट की -
हे प्रभु! यह दूध मैं कपिला गाय से दोह कर लाया हूँ। हे मेरे गोविंद! यदि आप दूध पी लेंगे तो मेरा मन शांत हो जाएगा नहीं तो पिताजी नाराज़ होंगे। दूध की कटोरी मैंने आपके आगे रखी है। पीए! अवश्य पीए! मैंने कोई पाप नहीं किया। यदि मेरे पिताजी से प्रतिदिन दूध पीते हो तो मुझसे आप क्यों नहीं ले रहे? हे प्रभु! दया करें। पिताजी मुझे पहले ही बुरा व निकम्मा समझते हैं। यदि आज आपने दूध नहीं पीया तो मेरी खैर नहीं। पिताजी मुझे घर से बाहर निकाल देंगे।
जो कार्य नामदेव के पिता सारी उम्र न कर सके वह कार्य नामदेव ने कर दिया। उस मासूम बच्चे को पंडितो की बेईमानी का पता नहीं था। वह ठाकुर जी के आगे मिन्नतें करता रहा। अन्त में प्रभु भक्त की भक्ति पर खिंचे हुए आ गए। पत्थर की मूर्ति द्वारा हँसे। नामदेव ने इसका जिक्र इस प्रकार किया है -
- ऐकु भगतु मेरे हिरदे बसै।
- नामे देखि नराइनु हसै ॥ (पन्ना ११६३)
एक भक्त प्रभु के हृदय में बस गया। नामदेव को देखकर प्रभु हँस पड़े। हँस कर उन्होंने दोनों हाथ आगे बढाएं और दूध पी लिया। दूध पीकर मूर्ति फिर वैसी ही हो गई।
- दूधु पीआई भगतु घरि गइआ।
- नामे हरि का दरसनु भइआ ॥ (पन्ना ११६३ - ६४)
दूध पिलाकर नामदेव जी घर चले गए। इस प्रकार प्रभु ने उनको साक्षात दर्शन दिए। यह नामदेव की भक्ति मार्ग पर प्रथम जीत थी।
शुद्ध हृदय से की हुई प्रार्थना से उनके पास शक्तियाँ आ गई। वह भक्ति भाव वाले हो गए और जो वचन मुँह निकलते वही सत्य होते। जब आपके पिताजी को यह ज्ञान हुआ कि आपने ठाकुर में जान डाल दी व दूध पिलाया तो वह बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने समझा उनका कुल सफल हो गया।
नामदेव जी के कुछ हिन्दी अभंग
- हरि नांव हीरा हरि नांव हीरा। हरि नांव लेत मिटै सब पीरा ॥टेक॥
- हरि नांव जाती हरि नांव पांती। हरि नांव सकल जीवन मैं क्रांती ॥1॥
- हरि नांव सकल सुषन की रासी। हरि नांव काटै जम की पासी ॥2॥
- हरि नांव सकल भुवन ततसारा। हरि नांव नामदेव उतरे पारा ॥3॥
- रांम नांम षेती रांम नांम बारी। हमारै धन बाबा बनवारी ॥टेक॥
- या धन की देषहु अधिकाई। तसकर हरै न लागै काई ॥1॥
- दहदिसि राम रह्या भरपूरि। संतनि नीयरै साकत दूरि ॥2॥
- नामदेव कहै मेरे क्रिसन सोई। कूंत मसाहति करै न कोई ॥3॥
- रांमसो धन ताको कहा अब थोरौ। अठ सिधि नव निधि करत निहोरौ ॥टेक॥
- हरिन कसिब बधकरि अधपति देई। इंद्रकौ विभौ प्रहलाद न लेई ॥1॥
- देव दानवं जाहि संपदा करि मानै। गोविंद सेवग ताहि आपदा करि जानै ॥2॥
- अर्थ धरम काम की कहा मोषि मांगै। दास नांमदेव प्रेम भगति अंतरि जो जागै ॥3॥
सन्दर्भ
- "Bhagat Namdev ji". Sikh-history.com. अभिगमन तिथि 2017-04-30.
- "namdev universe". Namdev.co.in. अभिगमन तिथि 2017-04-30.